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Monday, 1 July 2013

WAQT MERA AZAAD NAHI HAI

सत्य का आत्मविश्लेषण


सत्य को सत्य सा,
प्रकाश  को प्रकाश सा,
मिला  कोई तो लगता है,
मन है कुछ उदास-सा।

अपने महत्व की खोज में,
सत्य को सत्य मिले तो,
महत्व तो घट ही जाता है,
बचता है कुछ प्यास-सा।

महत्व अपना खोकर के,
सत्य खुश तो नहीं हुआ,
मन मसोसकर पड़ा है ,
चलो,जो हुआ,सही हुआ।

मुझसे उत्कृष्ट है कही,
जिसका अब उद्भव हुआ,
लगता है इसको ही,
कहते है कुछ विकास-सा।

समक्ष जब अनृत ही था,
मान सबने मुझे ही दिया,
वहाँ स्वयंसिद्ध उच्चता में,
विनम्र होकरके रह लिया।

अब श्रेष्ठ सम्मुख है तो,
विनम्रता नैसर्गिक नहीं है,
सहज ही विनम्र रहने को,
करना पड़ेगा कुछ प्रयास-सा।

मुझे छोड़ अपनाना इसको,
ये  नया एक दौर होगा,
मैं मिटूँगा ,मैं हटूँगा,
कोई नया सिरमौर होगा।

उपेक्षित होना किसी मोड़पर,
ये भी तो एक प्रक्रिया है,
बनकर रहूँगा फिर वही,
जिसको कहते है,इतिहास-सा।

पर कभी जब बात होगी,
यहाँ तक कैसे आये,
मेरा भी प्रसंग उठेगा,
इसने नए,मार्ग बनाये।

मेरा जो भी योगदान है,
वह होगा स्मृतियों में,
मैं सतत जीवित हो उठूँगा,
है मुझको कुछ विश्वास-सा।



2 comments:

  1. "satya" dusre "satya" se kbi parajit hua sa anubhav nahi kr sakta... "mahatva-prapti" ki abhilasha manushyon me to sambhav hai, satya k sandarbh me kaise? prakash ko prakash milne pr "udasi" samajh me nahi ayi.. please elaborate if possible...

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  2. is kavita ke aarambh me hi kisi bhi siddhant ka jo pehle to kranti laata hai,par anavarat pragati mein waqt ke saath apna mahatva khota hota,uska manavikarana(personification)kar diya gaya hai.kisi anya naye siddhant ko dekhkar wo suru me kaise pareshan hota hai aur phir kaise khud ko samhalta hai,waise kuch baatein aspashta hai,par poori kavita ko ek saath lene par kaafi kuch saaf ho jayega

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