अभिसप्त पार्थ !
इन पृथक छनो में आज,जीवन का यथार्थ ढूंढ लो,
अंगारों में आज कही,एक नया परमार्थ ढूंढ लो |
जगत में ईश्वर पहले भी था,
नहीं थे,तो बस,तुम ही नहीं थे,
सीमाएं तो सब पहले भी थी ,
तोड़नेवाले बस तुम ही नहीं थे,
आज कही अपनी साँसों में,स्वतंत्रता का निहितार्थ ढूंढ लो |
एक छोर पर हर बंधन,
न जाने कैसे ठोस बहुत है,
दम घुटता है,अब तो हर,
एक शिरा में रोष बहुत है,
पीर परे बहुत जान ली,अब तो अपना स्वार्थ ढूंढ लो |
शिथिल हो चुके बुद्धि-विवेक,
पराजय ही परस्पर लिखते है,
खंडित मन,धूमिल विश्वास,
सब मनुज एक-से दिखते है,
हे कृष्ण!स्वयं को सिद्ध करो अब,आज अपना पार्थ ढूंढ लो |
इन पृथक छनो में आज,जीवन का यथार्थ ढूंढ लो,
अंगारों में आज कही,एक नया परमार्थ ढूंढ लो |
जगत में ईश्वर पहले भी था,
नहीं थे,तो बस,तुम ही नहीं थे,
सीमाएं तो सब पहले भी थी ,
तोड़नेवाले बस तुम ही नहीं थे,
आज कही अपनी साँसों में,स्वतंत्रता का निहितार्थ ढूंढ लो |
एक छोर पर हर बंधन,
न जाने कैसे ठोस बहुत है,
दम घुटता है,अब तो हर,
एक शिरा में रोष बहुत है,
पीर परे बहुत जान ली,अब तो अपना स्वार्थ ढूंढ लो |
शिथिल हो चुके बुद्धि-विवेक,
पराजय ही परस्पर लिखते है,
खंडित मन,धूमिल विश्वास,
सब मनुज एक-से दिखते है,
हे कृष्ण!स्वयं को सिद्ध करो अब,आज अपना पार्थ ढूंढ लो |